इससे पूर्व जो कुछ कहा गया है, उसके बारे में कोई भी शंकालु, राष्ट्रवादी, रूढ़िवादी और प्राचीन विचारों का भारतीय यह प्रश्न अवश्य पूछेगा – “क्या पाकिस्तान बनना चाहिए?” इस प्रकार की प्रवृत्ति को कोई तुच्छ नहीं कह सकता है चूँकि पाकिस्तान की समस्या वास्तव में बड़ी गंभीर है, और यह बात मान लेनी चाहिए कि मुसलमानों तथा उनके पक्षधरों से उक्त प्रश्न के विषय में सवाल करना केवल प्रासंगिक एवं सही ही नहीं, महत्वपूर्ण भी है। इस बात का महत्व एवं आवश्यकता इस तथ्य में निहित है कि पाकिस्तान के पक्ष को क्षीण करने वाली सीमाएँ इतनी अधिक हैं कि आसानी से उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। उक्त सीमाओं के बारे में कोई भी एक वक्तव्य से ही यह समझ सकता है कि उनमें कितना दम है। यह बात उनकी आकृति से ही स्पष्ट झलकती है। ऐसा होते हुए पाकिस्तान के औचित्य को प्रमाणित करने का दायित्व मुसलमानों पर अधिक है। वस्तुतः पाकिस्तान का विषय, अथवा दूसरे शब्दों में भारत का विभाजन, इतना गंभीर मामला है कि मुसलमानों को केवल इसे प्रमाणित करने का दायित्व ही नहीं लेना होगा बल्कि उन्हें ऐसा साक्ष्य भी देना पड़ेगा जो अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जमीर को संतुष्ट कर सके, जिससे वे अपना मामला जीत सकें। अब देखते हैं कि उक्त सीमाओं के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान का मामला किस प्रकार ठहरता है?
2.
क्या पाकिस्तान का बनना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि मुस्लिम जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा कुछ निश्चित क्षेत्रों में केंद्रित है जिन्हें सरलता से भारत से अलग किया जा सकता है? इसमें तो कोई दो मत नहीं हैं कि मुस्लिम जनसंख्या कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित है जिनका अलग किया जाना संभव है। परंतु इससे क्या? इस प्रश्न को समझने एवं इस पर विचार करने के लिए हमें इस मौलिक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति ने भारत को एक एकल भौगोलिक इकाई के रूप में निर्मित किया है। भारतीय निश्चय ही लड़ रहे हैं और कोई भी यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि वे कब लड़ना बंद करेंगे। परंतु इस तथ्य को स्वीकारने पर, यह भी प्रश्न उठता है कि यह किस बात का सूचक है? केवल यह कहना कि भारतीय विवादी होते हैं, इस तथ्य को नहीं मिटा सकता है कि भारत एक भौगोलिक इकाई है। इसकी एकता उतनी ही प्राचीन है, जितनी कि प्रकृति। भौगोलिक एकता के अंतर्गत अत्यंत प्राचीन काल में भी यहाँ सांस्कृतिक एकता रही है। इसी सांस्कृतिक एकता ने राजनीतिक और जातीय विभाजन की अवहेलना की है, और पिछले 150 वर्षों से सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैधानिक और प्रशासनिक संस्थाएँ किसी भी मूल्य पर एक ही और एकसमान उद्गम स्थल से कार्य कर रही हैं। पाकिस्तान के किसी भी विवाद के संदर्भ में यह तथ्य आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि मूलतः भारत की एकता आधारभूत है। यह तथ्य हृदयंगम करने योग्य है कि विभाजन के वस्तुतः दो मुद्दे हैं, जिनमें स्पष्टतः भेद किया जाना चाहिए। एक मामला वह है, जिसमें प्रारंभ से ही विभाजन की पूर्व स्थिति का दिग्दर्शन होता है, जिसके फलस्वरूप उन भागों का पुनर्विभाजन होने की बात है, जो एक समय अलग थे और तदनंतर एक साथ मिल गए। यह मामला उससे भिन्न है, जिसमें प्रारंभिक मुद्दा सर्वदा एकता की स्थिति का है। परिणामस्वरूप इस मामले में विभाजन का अभिप्राय उस प्रदेश से जो किसी समय एक था अपना संबंध अलग-अलग भागों में विच्छेद कर लेना है। जहाँ प्रारंभिक मुद्दा प्रदेश की अखंडता से संबंधित नहीं है, अर्थात एकता होने के पूर्व जहाँ अलगाव था, वहाँ विभाजन-जिसका अभिप्राय पुनः अपनी पूर्वावस्था में वापसी है – संभवतः मानसिक आघात न पहुँचाए। परंतु भारत में प्रारंभिक मुद्दा एकता है। तब यह एकता क्यों छिन्न-भिन्न की जाए, केवल इसलिए कि कुछ मुसलमान असंतुष्ट हैं। इसके टुकड़े क्यों किए जाएँ, जबकि ऐतिहासिक काल से यह एक है?
3.
क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए क्योंकि हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनातनी है? इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके बीच तनातनी है। प्रश्न केवल यह है कि क्या यह तनातनी इतनी प्रबल है कि वे एक देश में एक संविधान के अंतर्गत नहीं रह सकते? निश्चित रूप से एक साथ रहने की यह इच्छा 1937 तक उनमें नहीं थी। ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट-1935’ के निर्माण के समय हिंदू-मुसलमानों ने एक देश में एक संविधान के अंतर्गत रहना पसंद किया था और उक्त एक्ट के पारित होने के पूर्व उस पर हुई चर्चा में भाग लिया था। 1920-1935 के बीच सांप्रदायिक तनातनी की क्या स्थिति थी? जैसा कि पूर्वगामी पृष्ठों में रिकार्ड किया गया है, 1920 से 1935 तक का भारतीय इतिहास सांप्रदायिक संघर्ष की एक लंबी कहानी है, जिसमें जन-धन की हानि शर्मनाक सीमा तक पहुँच गई थी। सांप्रदायिक स्थिति इतनी भयंकर कभी नहीं थी जितनी 15 वर्ष पूर्व भारत सरकार अधिनियम-1935 के पारित होने के पहले थी। फिर भी इस पारस्परिक तनाव के फलस्वरूप हिंदू और मुसलमानों में एक देश में एक संविधान के अंतर्गत रहने की इच्छा में कोई व्यवधान पैदा नहीं हुआ। फिर सांप्रदायिक तनाव के विषय में अब इतनी अधिक चर्चा क्यों की जाती है?
क्या भारत ही ऐसा देश है, जहाँ सांप्रदायिक तनातनी है? कनाडा के विषय में क्या विचार है? कनाडा में अँग्रेजी और फ्रेंचों के संस्था को लेकर मि. एलेक्जेंडर ब्रेडी का कथन विचारणीय है – “चार मूल प्रांतों में से तीन – नोवा स्कोशिया, न्यूज बुसविक और ऑटोरियो में उसी एंग्लो-सैक्सन समुदाय और परंपराओं को मानने वाले लोगों की संख्या अधिक थी। प्रारंभ में अमरीकी क्रांति के फलस्व रूप इन कालोनियों को उन 50,000 यूनाइटेड एंपायर राष्ट्र भक्तों ने बसाया, जिन्होंने उत्पीड़न के कारण उत्तर की कठिन यात्रा की और निर्जन प्रदेश में अपने घर बसाए। अमरीकी क्रांति से पहले नोवा स्कोशिया में काफी स्काटलेंडवासी और अमरीकी बसे हुए थे और क्रांति के बाद सभी राष्ट्र भक्त कालोनियों में ग्रेट-बिट्रेन और आयरलैंड से आए आप्रवासी भी इन बस्तियों में बसाए गए।
क्यूबेक प्रांत इनसे काफी भिन्न था। 1867 में फ्रेंच कनाडा अपने आप में एक सांस्कृतिक इकाई थी जिसे जाति, भाषा और धर्म के रोड़ों के कारण ब्रिटिश समुदाय से तिरस्कृत कर दिया गया था। ये लोग कैथोलिक विचारों से प्रभावित और दकियानूसी किस्मत के थे, जिनका प्यूरिटिनिज्म और प्रोटेस्टेंट धर्मियों, विशेषकर कालविनिस्ट से कोई लगाव नहीं था। दोनों समुदायों के धार्मिक विश्वास वास्तव में एकदम विपरीत थे। यदि धार्मिक कार्यों में हमेशा ऐसा न भी हो तो भी सामाजिक रूप में अँग्रेजी प्रोटेस्टेनिज्म का झुकाव हमेशा लोकतंत्र, यथार्थ और आधुनिक की ओर रहा तथा फ्रांस के केथोलिज्म का झुकाव परंपरावादिता आदर्शवादिता और अतीत के मनन की ओर रहा।
1867 में फ्रेंच कनाडा जैसा था, आज भी वह बहुत कुछ वैसा ही है। आज भी वह उन्हीं विश्वासों, रीति-रिवाजों और संस्थानों पर चल रहा है जिनको अँग्रेजी प्रांतों में कोई नहीं मानता। उनके अपने विशिष्ट विचार और धारणाएँ हैं और अपने ही महत्वपूर्ण मूल्य हैं। उदाहरण के लिए, विवाह और तलाक के बारे में उनका दृष्टिकोण न केवल शेष कनाडा, बल्कि एंग्लो-सैक्सन उत्तरी अमरीकावासियों के आम दृष्टिकोण के विपरीत है।
कनाडा के सबसे बड़े शहर मोंट्रियल में दोनों समुदायों के लोगों के बीच आपसी मेल-मिलाप का न होना देखा जा सकता है। लगभग 63 प्रतिशत आबादी फ्रेंच है और 24 प्रतिशत ब्रिटिश, यदि मेल-मिलाप की कहीं पर गुंजाइश है तो यहाँ पर वह काफी है, परंतु वास्तविकता यह है कि व्यवस्था और राजनीतिक कारणों से कक्ष छोड़कर, जो उन्हें साथ रहने के लिए बाध्य करते हैं, वे एक दूसरे से विमुख रहते हैं। उनके अपने ही आवासीय क्षेत्र हैं, अपने-अपने वाणिज्यिक केंद्र हैं और उनमें से अँग्रेजों की जातीय पृथकता की भावना दृश्टव्य हैं।
मोंट्रियल के अँग्रेजी बोलने वाले निवासियों के कुल मिलाकर अपने फ्रांसीसी भाषी नागरिकों की भाषा सीखने, उनकी परंपराओं को समझने, उत्सुकतापूर्वक उनका निरीक्षण करने तथा उनके गुण-दोषों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। भाषाई रोड़ों ने दोनों समुदायों के लोगों के अलग-अलग रहने को और उकसाया। 1921 में हुई जनगणना से इस तथ्य का पता चला कि फ्रांसीसी मूल के लगभग 50 प्रतिशत कनाडावासी अँग्रेजी बोलने में असमर्थ हैं और ब्रिटिश मूल के 95 प्रतिशत लोग फ्रांसीसी भाषा नहीं बोल सकते। यहाँ तक कि मोंट्रियल में भी 70 प्रतिशत ब्रिटिश मूल के लोग फ्रेंच नहीं बोल सकते और 30 प्रतिशत फ्रेंच अँग्रेजी नहीं बोल सकते। एक आम भाषा के अभाव में दोनों राष्ट्रीयताओं के बीच जो खाईं बनी हुई है, वह उन्हें एक होने से रोकती है।
कांफेडरेशन का महत्व यह है कि इसने एक सरकारी तंत्र को जन्म दिया है, जिसके कारण फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ सुखी, सहभागी और अपना विशिष्ट राष्ट्रीय कायम रखने तथा कनाडा की सुपर नागरिकता पाने और समग्र रूप से अपने समूह से ऊपर उस राष्ट्र के प्रति निष्ठावान रहने में सक्षम बनाया है।
“कनाडा में जहाँ संघीय प्रणाली ने सफलतापूर्वक व्यापक राष्ट्रीयता का मार्ग खोला है, वहीं प्रायोजित सहयोग के कारण फ्रांसीसियों और अँग्रेजों के बीच हिंसक मतभेद होने से कई बार अत्याधिक विवाद भी हुआ है और उच्चतर नागरिकता प्रायः एक छलावा सिद्ध हुई है।”
दक्षिण अफ्रीका का क्या हाल है? जिन लोगों को बोअर्स और अँग्रेजों के आपसी संबंधों के बारे में पता नहीं है, उन्हें श्री ई.एच. ब्रुक्स के इन शब्दों पर विचार करना चाहिए –
“गोरी जातियों और दक्षिण-अफ्रीकी लोगों, दोनों के लिए दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रीयता कितनी आम है? निस्संदेह यह अत्यंत वास्तविक और सघन है, परंतु आम तौर पर यह एक ऐसी भावना है जो केवल गोरी जातियों तक सीमित है और जो अफ्रीकी भाषा के प्रति प्यार से काफी हद तक प्रभावित हुई है। प्रारंभ में यह हालैंडवासियों की मातृभाषा से प्रभावित हुई और बाद में थोड़ा-बहुत फ्रांसीसी प्रोटेस्टेंट और जर्मनों ने उसे आधुनिक रूप दिया, लेकिन सर्वाधिक रूप से वह भाषा समय के साथ चलकर प्रभावित हुई। अफ्रीकी राष्ट्रीयता केवल उन लोगों के लिए है जो दक्षिण अफ्रीकी हैं और उसमें उन लोगों, मुख्यतः अँग्रेजी भाषियों, के लिए कोई स्थान नहीं है जो अन्यथा दक्षिण अफ्रीका के प्रति पूर्णतः समर्पित हैं।
क्या आज के समय में दक्षिण अफ्रीका का कोई राष्ट्र है?
“दक्षिण-अफ्रीकी जीवन में कतिपय ऐसे तथ्य विद्यमान हैं, जिनका उत्तर इस प्रश्न के प्रतिकूल जाता है।”
“अँग्रेजी बोलने वाले दक्षिण अफ्रीकी लोगों के बीच भी ऐसी अनेक धारणाएँ विद्यमान हैं जो राष्ट्रीय एकता के हित में बाधक हैं। सभी जातिगत गुणों के बावजूद, उनमें मूलभूत दोष कल्पना की कमी का है, जो उन्हें स्वयं को दूसरे आदमी के स्थान पर देखने में ‘कठिनाई पैदा करता है। भाषा के प्रश्न के अतिरिक्त, इसका स्पष्ट रूप अन्य किसी मुद्दे पर नहीं दिखाई देता। हाल तक बहुत ही कम अँग्रेजी भाषी दक्षिण-अफ्रीकी लोगों ने व्यावसायिक काम के लिए (या सिविल सेवा के लिए) न्यूनाधिक रूप से बाध्य होकर अफ्रीकी भाषा का अध्ययन किया है और उनमें भी बहुत कम लोग बोलचाल में उसका उपयोग करते हैं। अनेक लोगों ने इसकी जानकारी और ज्ञान के बावजूद इसका खुला उल्लंघन किया है और बहुसंख्यक लोगों ने सहिष्णुता की कमी के कारण इसके प्रति नाराजगी जताई है या इसका मजाक उड़ाया है।”
इसी मुद्दे पर एक दूसरे साक्षी की बात पर भी गौर किया जा सकता है। वे हैं मैंनफ्रेड नाथन। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में बोअर्स और अँग्रेजों के बीच जो संबंध हैं, उसके बारे में कहा है – “हो सकता है वे दोनों प्रोटेस्टेंट हों, यद्यपि आजकल इसका कोई महत्व नहीं रह गया है। धार्मिक मतभेद अब कोई ज्यादा माने नहीं रखता। वे एक-दूसरे के साथ खुले आम वाणिज्यिक लेन-देन करते हैं।”
इसके बावजूद, इस बात में सच्चाई नहीं है कि गोरे लोगों की आबादी के इन दो समुदायों के बीच पूर्ण रूप से उन्मुक्त सामाजिक व्यवहार होता है। कहा जाता है कि इसका एक कारण यह है कि बड़े शहरी केंद्रों में अँग्रेजी भाषी लोगों की आबादी अधिक है और शहरी लोगों को देहातों में रहने वालों के रहन-सहन के बारे में बहुत कम जानकारी होती है। लेकिन देहाती कस्बों में भी यद्यपि आमतौर पर काफी मैत्री होती है और बोअर्स लोग अपने यहाँ आने वालों का काफी सम्मान करते हैं तथापि आवश्यक व्यवसाय अथवा वाणिज्यिक संबंधों को छोड़कर, दोनों समुदायों के बीच सामाजिक संबंध अधिक नहीं है और धर्मार्थ अथवा सार्वजनिक सामाजिक कामों में सहयोग की जो अपेक्षा की जाती है, वह इनमें प्रायः नहीं है।”
भारत ही एक ऐसा देश नहीं है जहाँ सांप्रदायिक संघर्ष होते हैं। कनाडा और दक्षिण अफ्रीका में भी यह स्थिति विद्यमान है। यदि कनाडा में सांप्रदायिक तनातनी के होते हुए फ्रेंच और अँग्रेज राजनीतिक इकाई के रूप में रह सकते हैं, दक्षिण अफ्रीका में यह सांप्रदायिक तनातनी अँग्रेजों और डचों को राजनीतिक इकाई में बाँधे रहने में कोई बाधा नहीं पहुँचाती और यदि इस सांप्रदायिक तनातनी के बावजूद स्विटजरलैंड में फ्रेंच और इटालियंस जर्मनों के साथ राजनीतिक इकाई के रूप में रह सकते हैं, तो भारत में हिंदू और मुस्लिम एक संविधान के अंतर्गत क्यों नहीं रह सकते?
4.
क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए कि कांग्रेसी बहुमत में अब मुसलमानों का विश्वास नहीं रहा? मुसलमानों द्वारा इसके अनेक कारण बताए गए हैं, जिनमें हिंदुओें द्वारा पैदा किए गए आतंक तथा उन्हें परेशान करने के अनेक उदाहरण दिए गए हैं और कांग्रेसी मंत्रियों ने अपने दो वर्ष तीन महीने के शासन काल में जिनकी उपेक्षा की है। दुर्भाग्यवश श्री जिन्ना ने इन उत्पीड़क घटनाओं के संदर्भ में जाँच-पड़ताल करने के लिए शाही कमीशन बैठाने की अपनी माँग पर आग्रह नहीं किया। अगर उन्होंने आग्रह किया होता, तो यह मालूम हो जाता कि उन शिकायतों में कहाँ तक सच्चाई थी। मुस्लिम लीग की समितियों द्वारा उल्लिखित रिपोर्टो में दिए गए उदाहरणों का अध्ययन करने से पाठक पर यह प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता कि कुछ सच्चाई होने के बावजूद उन शिकायतों में काफी अतिशयोक्ति है। कांग्रेसी मंत्रियों ने इन दोषों को अस्वीकार करते हुए अपने वक्तव्य प्रकाशित किए हैं। हो सकता है कांग्रेस द्वारा अपने दो वर्ष तीन महीने के शासन में राजनीतिज्ञता का प्रदर्शन और अल्पसंख्यकों में विश्वास की भावना उत्पन्न न की गई हो, बल्कि उन्हें दबाया गया हो, परंतु क्या यह सब भारत-विभाजन के लिए एक उपयुक्त कारण हो सकता है? क्या यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे मतदाता, जिन्होंने पिछली बार कांग्रेस का समर्थन किया था, अब अधिक बुद्धिमत्तापूर्वक उसका समर्थन करेंगे? अथवा क्या यह संभव नहीं कि यदि कांग्रेस पुनः शासनारूढ़ होती है और अपनी गलतियों से लाभान्वित होती है, तो वह अपनी शरारतपूर्ण नीति का परित्याग करके अपने गत चरित्र द्वारा उत्पन्न शंका और भय के वातावरण को दूर कर देगी?
5.
क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं? दुर्भाग्य से, श्री जिन्ना ऐसे समय में पाकिस्तान के उपासक और मुस्लिम राष्ट्रीयता के अभिनेता हुए हैं, जब सारा संसार राष्ट्रीयता की बुराई के विरुद्ध चिल्ला रहा है और किसी भी तरह के अंतरराष्ट्रीय संगठन में शरण लेना चाहता है।
श्री जिन्ना मुस्लिम राष्ट्रीयता के अपने इस नए विश्वास से इतने आत्मविभोर हैं कि वे इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि एक ऐसे समाज के बीच जिसके कुछ हिस्से अलग हो गए हों और एक समाज जिसके कुछ अंग शिथिल पड़ गए हों, कोई भेद है और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति जिसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। जब एक समाज छिन्न-भिन्न हो रहा हो और दो राष्ट्र का सिद्धांत समाज और देश के विभाजन का स्पष्ट सूचक हो, तो कार्लाइल के ‘ऑरगेनिक फिलामेंट्स’ – अर्थात वे प्रबल शक्तियाँ जो उन भागों को एक सूत्र में बाँधने के लिए सक्षम हों जो छिन्न-भिन्न हो चुकी हैं – उनका कोई अस्तित्व नहीं है ऐसे मामलों में विघटन की भावना खेद जनक ही समझी जा सकती है। यह रोकी नहीं जा सकती। परंतु जहाँ उक्त शक्तियों का अस्तित्व है, उनके ऊपर ध्यान न देना और मुसलमानों की भाँति समाज तथा देश को जान-बूझकर विभाजित करने पर बल देना, एक घोर अपराध है। मुसलमान एक भिन्न राष्ट्र इसलिए नहीं चाहते कि वे भिन्न रहे हैं बल्कि इसलिए कि यह उनकी कामना है। मुसलमानों में बहुत कुछ है जिसके फलस्वरूप, यदि वे चाहें तो अपने को एक राष्ट्र के रूप में ढाल सकते हैं, परंतु क्या ऐसी कोई स्थिति नहीं है जो हिंदू और मुसलमानों में सघन रूप से पाई जाती हो और जिसके फलस्वरूप यदि वह विकसित की जाए तो वह उन दोनों को एक मानव समाज में ढाल सके? इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके अनेक ढंग, तौर-तरीके, धार्मिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज समान हैं। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि कुछ ऐसे भी रीति-रिवाज, संस्कार तथा आचरण हैं, जो धर्म पर आधारित हैं और जिनके फलस्वरूप हिंदू और मुसलमान आपस में दो भागों में विभक्त हैं। प्रश्न यह है कि उनमें से किस पर अधिक बल दिया जाए। यदि उन बातों पर बल दिया जाता है, जो दोनों में समान रूप से पाई जाती हैं, तो भारत में दो राष्ट्रों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। पर यदि उन बातों पर ध्यान दिया जाता है जो सामान्या रूप से भिन्न हैं, तो ऐसी स्थिति में निःसंदेह दो राष्ट्रों का सवाल सही है। यही धारणा श्री जिन्ना की है। भारतीय समाज एकमात्र ऐसा समाज है जो कभी एक नहीं हो सकता। माना कि वे एक राष्ट्र नहीं है बल्कि एक जनसमूह है, तो इससे क्या? यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मिले हुए व्यक्तियों के रूप में राष्ट्रों के उदय होने से पूर्व वहाँ मात्र जनसमूह था। इसमें कोई शर्म की बात नहीं है, यदि भारतीय एक जनसमूह के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। इस निराशा का कोई कारण भी समझ में नहीं आता कि भारतीय जनसमूह यदि चाहे तो एक राष्ट्र नहीं हो सकता। डिजराइली के कथनानुसार, राष्ट्र एक कला तथा काल के कार्य का प्रतिफल है। यदि हिंदू और मुसलमान उन बातों पर स्वीकृति प्रदान करने पर बल देते हैं जो उन्हें एक सूत्र में बाँधती है, और उन बातों को भूल जाते हैं जिनके परिणामस्वरूप वे विभक्त होते है तो फिर ऐसा कोई कारण नहीं है कि आगे चलकर उनका एक राष्ट्र के रूप में उदय न हो। हो सकता है कि उनकी राष्ट्रीयता इतनी एकताबद्ध न हो जितनी फ्रांस और जर्मनी की है, परंतु वे मन की एकसमान स्थिति सरलतापूर्वक उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसे सभी समान मुद्दों के मामलों में जिनका आविर्भाव राष्ट्रीयता की आत्मा के फलस्वरूप हुआ है, क्या यह उचित है कि मुस्लिम लीग भेदभावों पर तो बल दे परंतु एकता में बाँधने वाली शक्तियों को भुला दे। यह बात विस्मृत नहीं होनी चाहिए कि यदि दो राष्ट्र अस्तित्व में आते हैं तो इसलिए नहीं कि यह उनकी नियति थी, अपितु इसलिए कि यह सुविचारित मंसूबा है।
जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, भारत के मुसलमान अब भी कानूनन और यथार्थ में एक राष्ट्र नहीं हैं, और केवल कहा ही जा सकता है कि उनमें राष्ट्र-निर्माण के आवश्यक तत्व मौजूद हैं। परंतु यह मानते हुए कि भारत के मुसलमान एक राष्ट्र हैं, क्या – भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ दो राष्ट्रों का अभ्युदय होने वाला है? कनाडा के विषय में क्या विचार है? प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि कनाडा में अँग्रेज और फ्रेंच दो राष्ट्र हैं। क्या दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेज और डच दो राष्ट्र नहीं हैं? कौन नहीं जानता कि स्विटजरलैंड में जर्मनी, फ्रेंच और इटालियन, ये तीन राष्ट्र हैं। क्या कनाडा में फ्रेंचों ने विभाजन की माँग की, क्योंकि वे एक पृथक राष्ट्र हैं? क्या अँग्रेजों ने अफ्रीका के विभाजन का दावा किया, क्योंकि बोसनिया से वे एक भिन्न और पृथक राष्ट्र हैं? क्या किसी ने कभी यह सुना है कि जर्मनी, फ्रेंच और इटालियंस ने स्विटजरलैंड से अलग होने के लिए कोई आंदोलन किया, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न राष्ट्र हैं? क्या जर्मंस, फ्रेंच और इटलीवासियों ने कभी यह अनुभव किया है कि यदि वे एक देश में एक संविधान के अंतर्गत एक नागरिक की तरह रहते हैं तो उनकी अपनी निजी संस्कृतियों का लोप हो जाएगा। इसके बावजूद, उक्त सभी विभिन्न राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्रीयता तथा संस्कृति की क्षीणता से डरे बिना एक साथ, एक संविधान के तहत रहने में संतोष प्रकट किया। कनाडा में अँग्रेजों के साथ रहकर न तो फ्रांसीसी फ्रांसीसीयत से रिक्त हुए और न दक्षिण अफ्रीका में बोर्स के साथ रहकर अँग्रेजों की अँग्रेजियत समाप्त हुई। जर्मंस, फ्रेंच तथा इटालियंस एक देश और एक संविधान के साथ समान नाता जोड़ते हुए अभिन्न राष्ट्र रहे। स्विटजरलैंड का मामला ध्यान देने योग्य है। यह उन देशों से घिरा हुआ है, जिनकी राष्ट्रीयताएँ एवं राष्ट्रीयताओं का धार्मिक तथा जातीय संबंध बहुत निकट से स्विटजरलैंड की राष्ट्रीयताओं से संबद्ध है। उक्त सादृश्यता के होते हुए भी स्विटजरलैंड के निवासी सर्वप्रथम स्विस हैं, तत्पश्चात जर्मंस, इटालियंस और फ्रेंच हैं।
कनाडा में फ्रेंच दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेजों और स्विटजरलैंड में फ्रेंच और इटालियंस के उदाहरण के बाद प्रश्न यह उठता है कि भारत में आखिर ऐसा क्यों नहीं होता? यह मानते हुए कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्रों में विभाजित हैं, वे एक देश में एक संविधान के अंतर्गत क्यों नहीं रह सकते? दो राष्ट्र-सिद्धांत के आविर्भाव के फलस्वरूप भारत के विभाजन की आवश्यकता क्या है? हिंदुओं के साथ रहने पर मुसलमान अपनी राष्ट्रीयता तथा संस्कृति के क्षीण हो जाने को लेकर इतने भयभीत क्यों हैं? यदि मुसलमान विभाजन का आग्रह करते हैं, तो कुटिल व्यक्ति संभवतः यह निष्कर्ष निकालें कि हिंदू और मुसलमानों के बीच इतनी अधिक सामान्यता है कि मुस्लिम नेतृत्व में इतना भय व्याप्त है कि वे यह सोचने लगें कि जब तक विभाजन नहीं होता, मुसलमानों में जो थोड़ी-बहुत अलग इस्लामी संस्कृति बची हुई है, अंततः वह भी हिंदुओं के साथ सामाजिक संपर्क होने के कारण समाप्त हो जाएँगी और; फलस्वरूप दो राष्ट्रों के बावजूद भारत में एक राष्ट्र ही बचा रहेगा। यदि मुस्लिम राष्ट्रीयता इतनी ही क्षीण है तो विभाजन का विचार बनावटी है और पाकिस्तान का मामला अपना आधार खो बैठता है।
6.
क्या पाकिस्तान इसलिए बनना चाहिए कि इसके अभाव में स्वराज एक हिंदू राज होगा? मुस्लिम जनता उक्त प्रलाप में इतनी आसानी से बह जाती है कि इसमें जो निहित भ्रांतियाँ हैं, उनका पर्दाफाश कर देना परमावश्यक है।
सर्वप्रथम, हिंदू राज के लिए मुस्लिम आपत्ति क्या शुद्ध अंतःकरणीय है, अथवा एक राजनीतिक विरोध है? यदि यह शुद्ध अंतःकरणीय है तो यही कहा जा सकता है कि यह बड़ा विचित्र अंतःकरण है? वास्तव में ऐसे करोड़ों मुसलमान भारत में हैं जो बिना किसी प्रतिबंध तथा नियंत्रण के हिंदू रियासतों में रहते हैं। वहाँ मुस्लिम लीग अथवा मुसलमानों द्वारा कोई आपत्ति नहीं उठाई गई है। मुसलमानों ने एक समय ब्रिटिश राज के विरुद्ध शुद्ध अंतःकरण से आपत्ति उठाई थी। आज उन्हें मात्र आपत्ति ही नहीं है, अपितु वे उसके प्रबल समर्थक हैं। ब्रिटिश राज के प्रति आपत्ति न होना अथवा हिंदू रियासतों के हिंदू राजाओं के राज के प्रति आपत्ति न होना, किंतु अँग्रेजों से भारत के लिए स्वराज लेने पर इस आधार पर आपत्ति होना कि ऐसा भारत हिंदू राज होगा, मानो उसमें कोई अंकुश ही नहीं होंगे, ऐसी मनोवृत्ति है जिसका तर्क समझना बहुत कठिन है।
हिंदू राज के विषय में राजनीतिक आपत्तियाँ अनेक आधारों पर निर्भर करती हैं। पहला आधार यह है कि हिंदू समाज एक लोकतंत्र समाज नहीं है। यह सच नहीं है। चाहे यह पूछना सही न हो कि मुसलमानों ने हिंदू समाज-सुधार के लिए चलाए गए विभिन्न आंदोलनों में कभी भाग लिया है, लेकिन यह पूछना सही होगा कि क्या केवल मुसलमान ही उन बुराइयों से उत्पीड़ित हुए हैं जो हिंदू समाज के अप्रजातांत्रिक होने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं? क्या करोड़ों शूद्र और गैर-ब्राह्मण करोड़ों अस्पृश्य हिंदू समाज के इस अलोकतांत्रिक चरित्र के फलस्वरूप सर्वाधिक उत्पीड़ित नहीं हुए हैं? शिक्षा, लोक सेवा और राजनीतिक सुधारों के फलस्वरूप उस हिंदू शासक जाति को, जो हिंदुओं की उच्च जातियों से निर्मित हुई है और जो समस्त हिंदू जनसंख्या के दस प्रतिशत से अधिक नहीं है, छोड़कर अन्य किसको अधिक लाभ हुआ है? क्या उक्त हिंदू शासक जाति ने, जो हिंदू राजनीति पर अपना नियंत्रण रखती है, अस्पृश्य और शूद्रों के निहित स्वार्थों की सुरक्षा की अपेक्षा मुसलमानों के निहित स्वार्थों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया है? क्या श्री गांधी अस्पृश्यों को कोई राजनीतिक लाभ देने का विरोध करते हैं पर क्या मुसलमानों के पक्ष में वे एक कोरे चेक पर हस्ताक्षर करने के लिए तत्पर नहीं हैं? वास्तव में हिंदू शासक जाति अस्पृश्यों तथा शूद्रों के साथ शासन में भाग लेने की अपेक्षा मुसलमानों के साथ शासन में भाग लेने को अधिक तत्पर दिखाई देती है। मुसलमानों के पास निश्चय ही हिंदू समाज के इस अलोकतंत्रात्मक स्वरूप के प्रति शिकायत करने का किंचित भी आधार नहीं है।
दूसरा आधार, जिस पर हिंदू राज के प्रति मुसलमानों की आपत्ति आधारित है, यह है कि हिंदू एक बहुसंख्यक जाति है और मुसलमान अल्पसंख्यक जाति है। यह सत्य है। परंतु क्या भारत वर्ष ही एक ऐसा देश है जहाँ इस प्रकार की स्थिति है? भारतवर्ष में इस स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन हमें कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और स्विटजरलैंड की स्थिति से करना चाहिए। सर्वप्रथम जनसंख्या-वितरण को लिया जाए। कनाडा की कुल जनसंख्या 10,376,786 में से मात्र 2,927,990 फ्रेंच हैं। दक्षिण अफ्रीका में डचों की जनसंख्या 1,120,770 है और अँग्रेजों की केवल 783,071 है। स्विटजरलैंड की कुल जनसंख्या 4,066,400 में 2,924,313 जर्मन, 831,097 फ्रेंच और 242,034 इटालियंस है।
यह दर्शाता है कि छोटी राष्ट्रीयताओं को बड़ी जाति के राज में रहने पर कोई डर नहीं है। लेकिन ऐसी धारणा का उनमें क्यों अभाव है और इसका क्या कारण है? क्या यह इसलिए है क्योंकि विधान सभा तथा कार्यपालिका में अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने की वहाँ कोई संभावना नहीं है? बात इसके विपरीत है। दुर्भाग्यवश, ऐसे कोई भी आँकड़े हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं, जिनके द्वारा हम स्विटजरलैंड, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका की विभिन्न एवं अल्प-राष्ट्रीयताओं के प्रतिनिधियों की वास्तविक संख्या का अध्ययन कर पाते। भारत की भाँति वहाँ जातिगत स्थानों के बारे में आरक्षण की भावना नहीं है। प्रत्येक जाति को आम चुनाव में यह अधिकार है कि वह जितने चाहे, उतने स्थानों के लिए अपने उम्मीदवार खड़े कर सकती है। परंतु उन स्थानों की संभाव्य संख्या की गणना करना आसान है, जिन्हें प्रत्येक राष्ट्र विधान सभा के कुल स्थानों और अपनी जनसंख्या के अनुपात के आधार पर प्राप्त कर सकता है। इस आधार पर आगे चलते हुए, हमें क्या देखने को मिलता है? स्विटजरलैंड के निचले सदन में कुल एक सौ सत्तासी प्रतिनिधि हैं। उनमें से जर्मन जनसंख्या के 138 स्थानों पर जीतने की संभावना होती है, फ्रेंच की 42 पर और इटालियंस की केवल 7 स्थानों पर। दक्षिण अफ्रीका में कुल 153 स्थानों में से अँग्रेज 62 और डच 94 स्थान जीत सकते हैं। कनाडा में कुल 245 स्थान हैं। उनमें से 65 स्थानों पर फ्रेंच जीत सकते है। इस आधार पर यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उक्त समस्त देशों में यह संभावना है कि बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर सकते हैं। वास्तव में, यहाँ तक कहा जा सकता है कि मात्र कानून और आकार के संदर्भ में फ्रेंच लोग कनाडा में ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत, दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेज डच राज्य के अंतर्गत और स्विटजरलैंड में इटालियंस और फ्रेंच जर्मन राज्य के अंतर्गत रह रहे हैं। परंतु वास्तविक स्थिति क्या है? क्या कनाडा में फ्रांस निवासियों ने यह चीख-पुकार की है कि वे ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत नहीं रहना चाहते? क्या दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेजों द्वारा यह प्रलाप किया गया है कि वे डच राज्य के अंतर्गत नहीं रहना चाहते? क्या स्विटजरलैंड में फ्रेंच और इटालियंस ने कोई आपत्ति उठाई है कि वे जर्मन राज्य के अंतर्गत नहीं रह सकते? तब फिर मुसलमान ही क्यों यह आवाज उठाते हैं कि वे हिंदू राज्य के अंतर्गत नहीं रहना चाहते?
क्या यह बात कभी कही गई है कि हिंदू राज्य एक स्पष्ट, भेदभावरहित सांप्रदायिक बहुमत का शासन होगा? क्या हिंदू बहुमत के उत्पीड़न की संभावना के विरुद्ध मुसलमानों को सुरक्षा नहीं दी जाएगी? कनाडा में फ्रेंचों के हितों को, दक्षिण अफ्रीका में अँग्रेजों और स्विटजरलैंड में फ्रेंच और इटालियंस के हितों को जो सुरक्षा प्रदान की गई है, उनकी अपेक्षा भारत में मुसलमानों के हितों को मिली सुरक्षा क्या अधिक और बेहतर नहीं है? हितों की सुरक्षा के किसी एक विषय को ले लीजिए। क्या विधान सभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक नहीं है? क्या कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और स्विटजरलैंड में जातियों की जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व उन्हें दिया गया है, और क्या जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व का मुसलमानों पर कोई प्रभाव पड़ा है? क्या यह विधान सभा में हिंदुओं के बहुमत को नहीं घटाता है? इसमें कितनी कमी आई है? अपने को ब्रिटिश भारत तक ही सीमित करते हुए और केवल उसी प्रतिनिधित्व का लेखा-जोखा लेते हुए, जो कि निर्वाचन क्षेत्रों को प्रदान किया गया है, स्थिति क्या है? भारत सरकार के 1935 एक्ट के अंतर्गत केंद्रीय विधान सभा के निचले सदन में कुल 187 स्थानों में हिंदुओं की संख्या 105 और मुसलमानों की 82 है। उक्त आँकड़ों का अध्ययन करने के उपरांत कोई भी यह पूछ सकता है कि हिंदू राज से भय कहाँ है?
पर अगर वास्तव में हिंदू राज बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर, प्रजातंत्र के लिए यह अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। परंतु क्या इसका उपचार पाकिस्तान का बन जाना ही है? किसी देश में बसने वाली विभिन्न जातियों के तुलनात्मक शक्ति-संतुलन के अभाव में सांप्रदायिक राज का निर्माण होता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, संतुलन का वह अभाव भारत में इतना अधिक नहीं पाया जाता जितना कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और स्विटजरलैंड में है। तो भी कनाडा में कोई ब्रिटिश राज नहीं है, दक्षिण अफ्रीका में कोई डच राज नहीं है और स्विटजरलैंड में कोई जर्मन राज नहीं है। पूछा जा सकता है कि किस प्रकार अपने-अपने देश में फ्रेंच, जर्मन, अँग्रेज और इटालियंस बहुतसंख्यक जाति के राज को रोकने में सफल हुए? निश्च्य ही विभाजन द्वारा नहीं। उनकी क्या पद्धति है? उनकी पद्धति सांप्रदायिक दलों पर प्रतिबंध लगा देने की है। कोई भी जाति कनाडा, दक्षिण अफ्रीका तथा स्विटजरलैंड में पृथक सांप्रदायिक दल बनाने के लिए कभी नहीं सोचती। ध्यान देने योग्य बात यह है कि अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता सांप्रदायिक पार्टी की रचना के विरोध में अग्रसर होती है, क्योंकि वह जानती है कि यदि उसने किसी सांप्रदायिक दल का निर्माण किया, तो बहुसंख्यक जाति भी सांप्रदायिक पार्टी की रचना करेगी और इसके परिणामस्वरूप बहुसंख्यक जाति बड़ी आसानी से अपना सांप्रदायिक राज स्थापित कर लेगी। लेकिन आत्मरक्षा की यह एक हेय प्रणाली है। इसलिए अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता इससे पूरी तरह परिचित हैं कि वे किस प्रकार हमारे किले पर छा जाएँगे, अतः उन्होंने सांप्रदायिक राजनीतिक दलों के निर्माण का विरोध किया है।
पर क्या मुसलमानों द्वारा हिंदू राज को टालने की बात सोची गई? क्या उन्होंने कभी यह सोचा कि मुस्लिम लीग की चालू नीति कितनी घातक एवं हानिकारक है? मुसलमान हिंदू महासभा के हिंदू राज के नारे के विरुद्ध गरज रहे हैं। परंतु इसका उत्तरदायित्व किस पर है? यह हिंदू महासभा और हिंदू राज की बदले की भावना है, जिससे मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को जन्म दिया। यह क्रिया और प्रतिक्रिया है, जो एक दूसरे को जन्म देती है। हिंदू राज के भूत को दफनाने के लिए विभाजन को छोड़कर केवल मुस्लिम लीग का भंग हो जाना तथा हिंदू-मुस्लिम जातियों की संयुक्त पार्टी का बन जाना ही एकमात्र प्रभावी मार्ग है। जब तक संवैधानिक सुरक्षाओं के सवाल पर समझौता नहीं होता, तब तक वास्तव में यह संभव नहीं है कि मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यक पार्टियाँ कांग्रेस तथा हिंदू महासभा में भाग लें। परंतु यह निश्चित होना है, और आशा भी है कि इस समझौते के फलस्वरूप मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यक जातियाँ मनचाहे संरक्षण उपलब्ध करा सकेंगी। एक बार इस लक्ष्य की प्राप्ति हो जाने पर पार्टी को पुनः एक सीधे मार्ग पर आ जाने में कोई बाधा उपस्थित नहीं हो सकती। इसके लिए हम चाहते हैं कि कांग्रेस और महासभा भंग हो जाए और हिंदू तथा मुसलमान मिल-जुलकर राजनीतिक पार्टियों का निर्माण कर लें, जिनका आधार आर्थिक जीर्णोद्धार तथा स्वीकृत सामाजिक कार्यक्रम हो, तथा जिसके हिंदू राज अधवा मुस्लिम राज का खतरा टल सके। भारत में हिंदू-मुसलमानों की संयुक्त पार्टी की रचना कठिन नहीं हैं। हिंदू समाज में ऐसी बहुत-सी उपजातियाँ हैं जिनकी आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक आवश्यकताएँ वही हैं जो बहुसंख्यक मुस्लिम जातियों की हैं। अतः वे उन उच्च-जाति के हिंदुओं की अपेक्षा, जिन्होंने शताब्दियों से आम मानव अधिकारों से उन्हें वंचित कर दिया है, अपने व अपने समाज के हितों की उपलब्धियों के लिए मुसलमानों से मिलने के लिए शीघ्र तैयार हो जाएँगी। इस प्रकार के मार्ग का अवलंबन एक साहसपूर्ण कार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस मार्ग का पहले से ही अनुकरण किया गया है। क्या यह एक तथ्य नहीं है कि मांगेग्यू चेंसफोर्ड सुधारों के अंतर्गत अधिकांश प्रांतों में मुसलमान गैर-ब्राह्मण तथा पिछड़ी जातियाँ एकता के सूत्र में बँधी और 1920 से 1937 तक एक टीम की तरह उन सुधारों पर अमल किया गया? इनमें हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक एकता प्राप्त करने की अत्याधिक उपयोगी पद्धति निहित है और इसके परिणाम स्वरूप हिंदू राज का खतरा खत्म हो जाता है। श्री जिन्ना इस रूपरेखा का आसानी से सहारा ले सकते थे और उनके लिए इसमें सफलता प्राप्त करने में कोई कठिनाई भी नहीं थी। वास्तव में श्री जिन्ना ही एक ऐसे व्यक्ति है, जिन्हें इस ओर सफलता प्राप्त करने के समस्त अवसर प्राप्त हैं, यदि उनके द्वारा एक संयुक्त गैर-सांप्रदायिक पार्टी के निर्माण का प्रयत्न किया जाए। उनमें संगठन करने की योग्यता है, वे राष्ट्रीयता के लिए प्रसिद्ध हैं। अनेक हिंदू भी जिनका कांग्रेस से मतभेद है, उनके सहयोग करने को तत्पर हो जाते, यदि उन्होंने समान सोच वाले हिंदू-मुसलमानों की एक संयुक्त पार्टी बनाने का आह्वान किया होता। सोचिए कि 1937 में श्री जिन्ना ने क्या किया था? श्री जिन्ना ने मुस्लिम राजनीति में प्रवेश किया और आश्चर्यजनक ढंग से मुस्लिम लीग को, जो मर रही थी और क्षीण हो रही थी पुनर्जीवित किया, तथा कुछ ही वर्षों पूर्व जिसका दाह-संस्कार देखकर वह प्रसन्न होते। इस तरह सांप्रदायिक राजनीतिक पार्टी का प्रारंभ कितना ही खेदजनक ही, परंतु उसका जो सुखद स्वरूप था, वह था श्री जिन्ना का नेतृत्व। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता था कि श्री जिन्ना के नेतृत्व में लीग कभी भी सांप्रदायिक पार्टी नहीं हो सकेगी। अपने इस नए कार्य के पहले दो वर्षों में लीग ने जो प्रस्ताव पारित किए हैं, उनसे यह पता चलता है कि हिंदुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त राजनीतिक दल विकसित हो सकेगा। अक्तूबर 1937 में लखनऊ में संपन्न मुस्लिम लीग के वार्षिक अधिवेशन पर कुल 15 प्रस्ताव पारित हुए। उनमें से निम्नलिखित दो प्रस्ताव इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं –
प्रस्ताव संख्या 7 :
“अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का यह अधिवेशन भारत सरकार अधिनियम-1935 की भावना और अर्थ की तीव्र भर्त्सना करते हुए, कांग्रेस द्वारा कतिपय प्रांतों में मंत्रिमंडलों के निर्माण के विरुद्ध खेद प्रकट करता है, अपना विरोध प्रकट करता है तथा राज्यपालों की निंदा करता है, क्योंकि वे अपने उन विशिष्ट अधिकारों को प्रयोग में लाने में असफल रहे हैं, जो उन्हें मुस्लिम तथा अन्य महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिए उपलब्ध थे।”
प्रस्ताव संख्या 8 :
“यह निर्णय लिया जाता है कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का ध्येय स्वतंत्र प्रजातांत्रिक राज्यों के एक संघ के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता स्थापित करना है, जिसमें मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यकों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा संविधान में प्रभावपूर्ण ढंग से हो सके।”
दिसंबर 1938 में संपन्न मुस्लिम लीग के दूसरे वार्षिक अधिवेशन में इसी प्रकार के अनेक प्रस्ताव पारित किए गए। उनमें निम्न प्रस्ताव संख्या 10 विचारणीय है –
“अखिल भारतीय मुस्लिम लीग अपना यह दृष्टिकोण दोहराती है कि संघ की परियोजना, जो भारत सरकार अधिनियम-1935 में सन्निहित है, स्वीकार करने योग्य नहीं है, परंतु जो आगे उन्नति हुई है या समय-समय पर हो सकती है, एतदर्थ लीग अपने अध्यक्ष को अधिकार प्रदान करती है कि वे ऐसा मार्ग अपनाएँ, जो आवश्यक हो, जिससे उन उचित विकल्पों की संभावनाओं की खोज की जा सके, जिनके फलस्वरूप मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा हो सके।”
उक्त प्रस्तावों द्वारा श्री जिन्ना ने यह दिखाया कि वह मुस्लिम और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच एक सामान्य मंच के पक्ष में हैं। दुर्भाग्यवश निष्पक्षता तथा राजनीतिज्ञता, जो उक्त प्रस्तावों में सन्निहित थी, अधिक समय तक नहीं रह सकी। 1939 में श्री जिन्ना ने एक छलाँग लगाई और पाकिस्तान के पक्ष में वह शरारतपूर्ण प्रस्ताव पारित करते हुए मुसलमानों को पृथक करने की खतरनाक एवं विनाशकारी अलगाववादी नीति की रूपरेखा तैयार की। इस अलगाव का क्या कारण है? कोई कारण नहीं, केवल विचारधारा में परिवर्तन कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं, एक जाति नहीं। किसी व्यक्ति को इस सवाल पर झगड़ना नहीं चाहिए कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं अथवा जाति। परंतु यह बात समझना बहुत कठिन है कि किस प्रकार यह तथ्य कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं, राजनीतिक अलगाव की एक सुरक्षित और सार्थक नीति का द्योतक है। दुर्भाग्यवश मुसलमान इस बात का अनुभव नहीं करते कि उक्त नीति के फलस्वरूप श्री जिन्ना ने उन लोगों का कितना अहित किया है, परंतु मुसलमान यह तो सोच ही सकते हैं कि मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र संगठन बनाकर श्री जिन्ना ने क्या पाया? हो सकता है उक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप उनके सामने किसी अन्य व्यक्ति के नेतृत्व प्राप्त करने की संभावना न रही हो, क्योंकि मुस्लिम शिविर में उन्हें स्वयं सर्वप्रथम स्थान प्राप्त होने का पूर्ण विश्वास रहा है। परंतु लीग हिंदू राज्य से मुसलमानों के अलगाव की योजना द्वारा किस प्रकार अपने को बचा सकती है? जिन प्रांतों में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, क्या पाकिस्तान वहाँ हिंदू राज्य के निर्माण की संभावना को रद्द कर सकता है? स्पष्टतः वह ऐसा नहीं कर सकता। अगर पाकिस्तान बना तो अल्पसंख्यक मुस्लिम प्रांतों में यह बात अवश्य होगी। अब संपूर्ण भारत पर दृष्टिपात कीजिए। क्या पाकिस्तान उन मुस्लिम अल्पयसंख्यकों के बल पर, जो हिंदुस्तान में बचे रहेंगे, केंद्र में हिंदू राज स्थापित करने में रुकावट डाल सकता है? स्पष्ट है कि ऐसा नहीं हो सकता। तब पाकिस्तान का क्या औचित्य रहा? क्या वह उन बहुसंख्यक मुस्लिम प्रांतों में, जहाँ पर कभी भी हिंदू राज नहीं बन सकता, हिंदू राज की स्थापना को रोक सकता है? दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पाकिस्तान मुसलमानों के लिए वहाँ अनावश्यक है जहाँ वे बहुसंख्यक हैं, क्योंकि वहाँ हिंदू राज की स्थापना का कोई भय नहीं है। वह स्थिति मुसलमानों के लिए निरर्थक होने की अपेक्षा और भी बुरी है, जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, क्योंकि पाकिस्तान हो अथवा नहीं, हिंदू राज का सामना उन्हें करना पड़ेगा। क्या राजनीति मुस्लिम लीग की इस राजनीति से भी अधिक खराब हो सकती हैं, मुस्लिम लीग ने अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों का आलिंगन करते हुए बहुसंख्यक मुस्लिमों की वकालत करके उन्हें समाप्त किया। लीग के मौलिक लक्ष्य में बिना हेरफेर हुआ, कितना पतन एक हास्यास्पद स्थिति तक हुआ, यह देखा जा सकता है। हिंदू राज के विरुद्ध विभाजन का विकल्प और अधिक बुरा है।
7.
पाकिस्तान को लेकर मुस्लिम दृष्टिकोण में जो त्रुटियाँ हैं, उनमें से कुछ मेरे सामने आ चुकी हैं। और भी त्रुटियों हो सकती हैं, जो मेरी समझ में न आई हों। किंतु उनकी जो सूची इस समय है, वह भी काफी बड़ी है। मुसलमान उन्हें किस तरह दूर करने की सोचते हैं, यह प्रश्न मुसलमानों के लिए है, मेरे लिए नहीं। इस विषय का विद्यार्थी होने के नाते मेरा कर्तव्य उन त्रुटियों को जता देना है। वह मैंने कर दिया। कोई और प्रश्न मेरे पास उत्तर देने को नहीं है।
जो भी हो, दो और ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनकी चर्चा किए बिना यह विवाद समाप्त नहीं किया जा सकता था। इन प्रश्नों का उद्देश्य मेरे और मेरे आलोचकों के बीच जो भेद है, उसे साफ कर देना है। इन प्रश्नों में, एक तो मैं आलोचकों से पूछने का अधिकारी हूँ और दूसरे को आलोचक मुझसे पूछ सकते हैं।
पहला प्रश्न जो मैं आलोचकों से पूछना चाहता हूँ, यह है कि इन त्रुटियों के परिप्रेक्ष्य में ये क्या आशा करते हैं? क्या वे यह आशा करते है कि यदि इस वाद-विवाद में मुसलमान हार जाएँ तो वे पाकिस्तान का नाम न लें? यह तो उन शर्तों पर निर्भर करता है जो विवाद को निश्चित करने के लिए अपनाई जाएँगी। हिंदू और मुसलमान उस तरीके पर चल सकते हैं, जिसे प्राचीन काल में ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं को ईसाई बनाने के लिए अपनाया था। इस तरीके के मुताबिक ईसाई मिशनरियों और ब्राह्मणों के बीच बहस का, जिसे जनता सुन भी सके, एक दिन निश्चित कर दिया जाता था। पहली शर्त तो ईसाई धर्म का प्रतिनिधित्व करती थी और दूसरी में हिंदू धर्म की व्याख्या होती थी। तीसरी शर्त यह होती थी कि जो अपने धर्म की पुष्टि में हार जाएगा, वह दूसरे के धर्म को स्वीकार करने को बाध्य होगा। यदि पाकिस्तान के मसले पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच झगड़ा निपटाने का यह तरीका स्वीकार किया गया होता तो त्रुटियों की इस श्रृंखला का कुछ लाभ हो सकता था। किंतु यह भूलने की आवश्यकता नहीं है कि किसी बहस को समाप्त करने का एक और तरीका है, जिसे ‘जानसनी’ तरीका कहा जा सकता है और जो उस तरीके पर आधारित है जिसे डॉ. जानसन ने पादरी बर्फले से बहस करने में प्रयोग किया था। बास्वेधल लिखते हैं कि जब उन्होंने डॉ. जानसन को बताया कि पादरी बर्फले का मत यह कि पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं है और इस संसार में सब कुछ काल्पनिक है, एक कुतर्क है, पर उसका खंडन करना कठिन है, तो डॉ. जानसन ने एक भारी पत्थर पर जोर से पैर पटकते हुए तत्काल उत्तर दिया – ‘मैं इसे इस तरह खंडित करता हूँ।’ हो सकता है मुसलमान इस बात पर राजी हो जाएँ, जैसा कि अधिकांश मुस्लिम बुद्धिजीवी कहते हैं, कि पाकिस्तान का जो मसला है, उसका फैसला ‘बहस’ और ‘तर्क’ के परीक्षणों से हो। किंतु मुझे आश्चर्य नहीं होगा, यदि मुसलमान डॉ. जानसन का तरीका अपनाने का निश्चय कर लें और कहें कि भाड़ में जाएँ तुम्हारे तर्क, हम तो पाकिस्तान चाहते हैं। आलोचकों को समझना चाहिए कि ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के मसले को बिगाड़ने के लिए यदि उनकी मजबूरियों पर भरोसा किया गया, तो बिल्कुल बेकार होगा। इसलिए पाकिस्तान की त्रुटियों के तर्क का आनंद लेना निरर्थक है।
अब उस दूसरे प्रश्न को लिया जाए, जो मैंने कहा है कि आलोचक मुझसे पूछने के अधिकारी हैं। जो आपत्तियाँ मैंने प्रस्तुत की है, उन्हें देखते हुए पाकिस्तान के मामले में मेरी क्या राय है? अपनी राय के विषय में मुझे कोई संशय नहीं है। मेरा दृढ़ मत है कि कुछ स्थितियों के बने रहने पर, जो आगामी अध्यायों में उल्लिखित हैं, यदि मुसलमान पाकिस्तान लेने पर तुले हुए हैं तो वह उन्हें दिया जाना चाहिए। मैं जानता हूँ कि मेरे आलोचक मुझ पर तुरंत बेमेल बात कहने का लाँछन लगाएँगे और ऐसे असाधारण निष्कर्ष निकालने के कारण मुझसे पूछेंगे – असाधारण उस दृष्टिकोण के कारण जो कि मैं इस अध्याय के पहले भाग में प्रकट कर चुका हूँ कि पाकिस्तान के पक्ष के मुस्लिम विवाद में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मजबूत करने वाली ताकत कहा जा सकें, जो कि निर्दयी भाग्य-निर्णायक कही जाती है। पाकिस्तान के मसले में जो कमियाँ मैंने गिनाई हैं, उनमें से किसी को भी मैं वापस नहीं लेना चाहता। फिर भी मेरा विचार है कि यदि मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए तो उन्हें वह दिए बिना कोई बचाव नहीं है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद भी मैं यह निस्संकोच कह सकता हूँ कि पाकिस्तान के तर्क में कोई दम नहीं है। मेरे फैसले में दो निर्देशक कारक हैं, जो मसले का फैसला करने वाले हैं। पहला है भारत की सुरक्षा और दूसरा है मुसलमानों की भावना। मैं बताऊँगा कि मैं उन्हें फैसला करने के योग्य क्यों समझता हूँ और किस प्रकार वे मेरे विचार से पाकिस्तान के पक्ष में जाते हैं।
पहले प्रथम प्रश्न लिया जाए। कोई इस बात की अनदेखी नहीं कर सकता कि स्वतंत्रता पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसे बनाए रखने के लिए पक्के साधनों का पाना। स्वतंत्रता को मजबूत रखने वाली तो अंततोगत्वा एक भरोसेमंद फौज है – ऐसी फौज जिस पर हर समय और किसी भी घटना काल में देश के लिए लड़ने का विश्वास किया जा सके। भारत में फौज अवश्य ही संयुक्त होगी, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों रहेंगे। यदि भारत पर किसी विदेशी शक्ति का आक्रमण होता है तो क्या फौज में शामिल मुसलमानों पर भारत की रक्षा का भरोसा किया जा सकता है? मान लीजिए कि हमलावर उनके सहधर्मी हैं, तो क्या मुसलमान उनकी तरफ हो जाएँगे या ये उनका सामना करेंगे और भारत को बचाएँगे? यह अत्यंत अहम प्रश्न है। स्पष्टता इस प्रश्न का उत्तर इस पर निर्भर करेगा कि फौज में शामिल मुसलमानों को राष्ट्र सिद्धांत, जो कि पाकिस्तान की नींव है, की छूत कहाँ तक लग गई है। यदि उन्हें यह छूत लग गई है तो भारत में फौज खतरे से खाली नहीं हो सकती। भारत की स्वतंत्रता संरक्षित होने के बजाए वह उसके लिए एक धमकी और भारी खतरा बनी रहेगी। मैं यह मानता हूँ। अँग्रेज जो तर्क देते हैं कि उनके द्वारा पाकिस्तान को अस्वीकृत कर देना भारत के हित में होगा, यह सुनकर मैं सुन्न हो जाता हूँ। कुछ हिंदू भी यही स्वर अलापते हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि या तो वे जानते नहीं हैं कि भारत की स्वतंत्रता में निर्धारक कारक क्या हैं या वे भारत की रक्षा की बात एक स्वतंत्र देश के आशय से नही करते, जो अपनी सुरक्षा का उत्तरदायी हो, बल्कि अँग्रेजों के एक अधिकृत देश के नाते करते हैं, जिसकी वे अनाधिकार प्रवेश करने वाले से रक्षा करें। यह दृष्टिकोण बिल्कुल गलत है। प्रश्न यह नहीं है कि क्या अँग्रेज भारत का विभाजन न होने की स्थिति में बेहतर तरीके से भारत की रक्षा कर सकेंगे। प्रश्न यह है कि क्या भारतीय जन स्वतंत्र भारत की रक्षा कर सकेंगे? मैं फिर दोहराता हूँ कि एक ही उत्तर है कि भारतीय स्वतंत्र भारत की रक्षा एक ही दशा में कर सकेंगे, अर्थात यदि भारत में फौज अराजनीतिक रहती है, पाकिस्तान के जहर से अछूती। भारतीय को मैं फौज के प्रश्नों को उठाए बिना स्वराज्य पर विचार-विमर्श की वाहियात आदत के खिलाफ चेतावनी देता हूँ, जो इस देश मैं पैदा हो गई है। इससे बढ़कर घातक कुछ नहीं हो सकता, यदि यह न समझा जाए कि राजनीतिक फौज भारत की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। ऐसी स्थिति किसी भी फौज के न होने से भी बुरी है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि फौज वह अंतिम स्वीकृति है, जो देश में सरकार को उस समय सँभालती है, जब कोई विद्रोही या अड़ियल तत्व उसे चुनौती देता है। मान लीजिए कि तत्कालिक सरकार कोई ऐसी नीति अपनाती है, जिसका मुसलमानों का एक वर्ग घोर विरोध करता है। मान लीजिए प्रस्तुत सरकार को उस नीति का पालन कराने के लिए फौज को इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ती है। तो क्या वह सरकार मुसलमानों पर भरोसा कर सकती है कि वे उसका आदेश मानेंगे और मुसलमान विद्रोहियों को गोली मार देंगे? यह फिर उसी बात पर निर्भर है कि कहाँ तक मुसलमानों को दो राष्ट्र सिद्धांत की छूत लग चुकी है। यदि उन्हें यह छूत लग चुकी है तो भारत एक विश्वसनीय और सुरक्षित सरकार नहीं बना सकता।
अब दूसरे महत्वपूर्ण कारक पर विचार करें, तो हिंदू जनता राजनीति में भावना को शक्ति के रूप में कोई महत्व देती नहीं जान पड़ती। मुसलमानों के विरुद्ध जीतने के लिए हिंदू दो कारणों पर भरोसा करते जान पड़ते हैं। पहला यह है कि भले ही हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हों, वे एक राज्य में रह सकते हैं। दूसरा यह कि पाकिस्तान मुसलमानों की एक बलवती भावना पर आधारित है न कि स्पष्ट तर्कों पर। मैं नहीं जानता कि हिंदू ऐसे तर्कों से अपने को कब तक मूर्ख बनाएँगे। यह सत्य है कि पहला तर्क पूर्वोदाहरण के बिना नहीं है। साथ ही इसे समझने में अधिक बुद्धि की आवश्यकता नहीं कि इसका महत्व अत्यंत सीमित है। दो राष्ट्र और एक राज्य एक अच्छा बहाना है। इसमें वही आकर्षण है, जो एक धर्मोपदेश में होता है और इसका परिणाम मुस्लिम नेताओं का बदल जाना हो सकता है। किंतु एक धर्मोपदेश की तरह कहे जाने के बजाए यदि इसे अध्यादेश के रूप में निकालने और मुसलमानों से मनवाने का इरादा किया जाता है तो ऐसा करना एक पागलपन भरी योजना होगी, जिसे कोई भी स्वस्थ चित्त मनुष्य नहीं मानेगा। मुझे विश्वास है कि इससे स्वराज्य का उद्देश्य ही मारा जाएगा। दूसरा तर्क भी इतना ही मूर्खतापूर्ण है। पाकिस्तान का मुस्लिम भावना की नींव पर खड़ा होना कमजोरी की बात बिल्कुल नहीं है। यह वास्तव में इसका प्रबल तर्क-बिंदु है। यह जानने के लिए राजनीति की गहरी समझ की जरूरत नहीं है कि संविधान के कार्यान्वयन की क्षमता मुख से कह-भर देने की बात नहीं है। यह भावना का विषय है। एक संविधान को कपड़ों की तरह अनुकूल और मनमोहक होना चाहिए। यदि वह मनोहारी नहीं है तो चाहे जितना भी पूर्ण हो, काम नहीं कर सकता। यदि ऐसा संविधान बनता है जो एक निश्चित वर्ग की प्रबल भावनाओं के विपरीत जाता हैं, जो वह एकदम विद्रोह भले ही पैदा न करे, विनाशकारी तो होगा ही।
हिंदू यह बात नहीं समझ रहे हैं कि मान लीजिए एक भरोसेमंद फौज है, तो सैन्य -शक्तियों द्वारा लोगों पर शासन करना किसी देश की सामान्य विधि नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शक्ति राजनीतिक शरीर की औषधि है और शरीर के रोगी होने पर प्रयुक्त होनी चाहिए। किंतु राजनीतिक शरीर की औषधि होने से ही शक्ति को उसकी नित्य की खुराक नहीं बनाया जा सकता। एक राजनीतिक शरीर को प्राकृतिक रूप से काम करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब कि राजनीतिक शरीर के विभिन्न घटक तत्व साथ-साथ काम करने की इच्छा रखें और यथावत गठित प्राधिकार द्वारा बनाए गए नियमों और आदेशों का पालन करने को तैयार हों। मान लीजिए संयुक्त भारत के लिए नए संविधान में वे सभी बातें मौजूद हैं, जो मुसलमानों के हितों की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं। किंतु मान लीजिए मुसलमानों ने कह दिया कि ‘आपकी सुरक्षा के लिए आपको धन्यवाद, हम आपसे शासित होना नहीं चाहते’ और मान लीजिए वे विधान सभा का बहिष्कार करते हैं, कानून को मानने से इनकार करते हैं, करों को देने का विरोध करते हैं, तो क्या होगा? क्या हिंदू अपनी संगीनों के बल मुसलमानों से आज्ञा मनवाने को तैयार हों? क्या स्वराज लोगों की सेवा करने का अवसर होगा या हिंदुओं के लिए मुसलमानों को और मुसलमानों के लिए हिंदुओं को जीतने का मौका। स्वराज होना चाहिए लोगों के द्वारा, लोगों के लिए, लोगों का शासन। यह स्वराज का यथार्थ हेतु है और स्वराज का एकमात्र औचित्य। यदि स्वराज को ऐसे युग में प्रवेश करना है जिसमें हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के विरुद्ध योजना बनाने में लगे होंगे, हरेक अपने प्रतिद्वंद्वी को जीतने की साजिश में लगा होगा तो हमें स्वराज क्यों लेना चाहिए और प्रजातांत्रिक राष्ट्रों को ऐसे स्वराज को अस्तित्व में ही क्यों आने देना चाहिए? यह जाल छल और पथभ्रष्टकारी होगा।
गैर-मुस्लिम इस बात से अनजान दिखाई देते हैं कि उन्हें ऐसी स्थिति में खड़ा कर दिया गया है जिसमें उन्हें विवश विकल्पों में चुनाव करना पड़ेगा। मैं उन्हें बता दूँ। पहले तो उन्हें भारत की स्वतंत्रता और भारत की एकता के बीच एक को चुनना है। यदि गैर-मुस्लिम भारत की एकता पर जोर देते हैं तो वे भारत की स्वतंत्रता की शीघ्र प्राप्त को संकट में डालते हैं। दूसरा विकल्प भारत की रक्षा की सबसे पक्की विधि में संबंध रखना है कि क्या वे स्वतंत्र और संयुक्त भारत में मुसलमानों पर भरोसा कर सकते हैं? क्या वे गैर-मुस्लिमों के मेल-मिलाप के साथ दोनों की संयुक्त स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए आवश्यक इच्छा पैदा करेंगे और बनाए रखेंगे? या भारत का विभाजन कर देना बेहतर है, जिससे कि मुस्लिम भारत की सुरक्षा मुसलमानों के सुपुर्द होने से पक्की हो जाए और गैर-मुस्लिम भारत की सुरक्षा गैर-मुसलमानों के हाथ में सुदृढ़ रहे।
पहले तो मैं भारत की एकता से अधिक भारत की स्वतंत्रता को पसंद करता हूँ। सीन, फीनर, जो दुनिया-भर के राष्ट्रवादियों में सबसे अधिक कट्टर थे और जो भारतीयों की तरह ऐसे ही विकल्पों में डाले गए थे, उन्होंने आयरलैंड की एकता के मुकाबले आयरलैंड की स्वतंत्रता को चुना था। गैर-मुस्लिम जो विभाजन के खिलाफ है, एक समय फीनों के उपाध्यक्ष रहे रेवरेंड माइकेल ओ फ्लेनागन की इस सलाह से बहुत लाभ उठा सकते हैं, जो उन्होंने आयरलैंड के विभाजन पर आयरलैंड के राष्ट्रवादियों को दी थी। उन्होंने कहा था –
“यदि हम गृह शासन को अस्वीकार करके अल्सटर के संधि भागों को बाहर जाने देना पसंद करते तो, हम संसार के सामने इसकी पुष्टि कैसे करेंगे? हम बता सकते हैं कि आयरलैंड एक ऐसा द्वीप है, जिसकी एक निश्चित भौगोलिक सीमा है। यह तर्क उन अनेक द्वीपीय राष्ट्रों को सही लग सकता है जिनकी स्वयं की निश्चित भौगोलिक सीमाएँ है। पर घटती-बढ़ती सीमाओं वाले महाद्वीपीय देश से अपील करने पर, जैसा कि हम कर रहे हैं, उस तर्क में कोई दम नहीं रहेगा। राष्ट्रीय और भौगोलिक सीमाएँ शायद ही कभी एक हो पाती हैं। भूगोल ने स्पेन और पुर्तगाल को एक राष्ट्र बनाया, इतिहास ने उन्हें दो बना दिया है। भूगोल ने नार्वे और स्वीडन को एक-राष्ट्र बनाने का भरसक यत्न किया, इतिहास उन्हें दो बनाने में सफल हुआ। उत्तरी अमेरिकी महाद्वीप में जो अनेक राष्ट्र हैं, भूगोल के पास उनसे कहने को शायद ही कुछ होगा, सब कुछ इतिहास ने किया है। यदि कोई यूरोप के भौतिक नक्शे से राजनीतिक नक्शा बनाने की कोशिश करता, तो वह अंधकार में भटक जाता। भूगोल ने आयरलैंड को एक राष्ट्र बनाने का कठिन कार्य किया, इतिहास ने इसके विपरीत कार्य किया है। बात इतनी है कि आयरलैंड द्वीप और आयरलैंड की राष्ट्रीय यूनिट एक नहीं हैं। अंतिम विश्लेषण यह है कि राष्ट्रीयता की परीक्षा लोगों की इच्छा है।” ये शब्द वास्तविकता के धरातल से निकले गंभीर विचार है। खेद है कि भारत में इनका अभाव है।
दूसरे मसले पर मैं भारत का मुस्लिम भारत और गैर-मुस्लिम भारत के विभाजन बेहतर समझता हूँ जो कि दोनों को सुरक्षा प्रदान करने का सबसे पक्का और सुरक्षित तरीका हैं। अवश्य ही दोनों विकल्पों में से यह अधिक सुरक्षित है। मैं जानता हूँ कि यह तर्क दिया जाएगा कि स्वतंत्र और संयुक्त भारत के प्रति दो राष्ट्र-सिद्धांत की छूत से पैदा होने वाली मुसलमान सेना की वफादारी के प्रति आशंका केवल काल्पनिक आशंका है। यह बेशक सही है। मेरे द्वारा चुने गए, विकल्प की उपयुक्तता से इसका कोई विरोध नहीं है। मैं गलत हो सकता हूँ। किंतु मैं विरोध की आशंका न रखने हुए और निश्चित रूप से वर्क के शब्दों का प्रयोग करते हुए, यह कह सकता हूँ कि सुरक्षा पर भारी भरोसा रखकर नष्ट होने की बजाए सुरक्षा पर अतिशय ध्यान देने के लिए हँसाई कराना बेहतर है। मैं मामलों को इत्तिफाक पर छोड़ देना नहीं चाहता। भारत की सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय को संयोग पर छोड़ देना सबसे बड़ा अपराध करना हैं। पाकिस्तान के लिए मुसलमानों की माँग को कोई मंजूर नहीं करेगा, जब तक कि उसे इसके लिए मजबूर न किया जाए। साथ ही जो बात सुनिश्चित है, वह यह कि साहस एवं सामान्य समझ-बूझ से उसका सामना न करना भूल होगी। यह भूल ऐसी ही होगी जैसे उस भाग को खो देना, जिसको स्थायी रखने के लिए व्यर्थ प्रयत्न करके बचाया जा सकता है।
इन्हीं कारणों से मेरा ख्याल है कि यदि पाकिस्तान के मसले पर मुसलमान झुकते नहीं हैं, तो पाकिस्तान बनकर रहेगा। जहाँ तक मेरा संबंध है, केवल यही महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या मुसलमान पाकिस्तान बनाने पर तुले हुए है? या पाकिस्तान केवल एक पुकार हैं? क्या यह केवल एक क्षणिक विचार है या यह उनके स्थायी उत्साह का प्रतीक है? इस बात पर मतभेद हो सकता है। एक बार यह निश्चित हो जाने पर कि मुसलमान पाकिस्तान चाहते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि इन सिद्धांत को मान लेना ही बुद्धिमानी की बात होगी।